
नई दिल्ली । 17 जुलाई 2025, शब्दरंग समाचार :
भारतीय संविधान में समानता, न्याय और भेदभाव रहित समाज की कल्पना की गई है, लेकिन सामाजिक रीति-रिवाज और पारंपरिक मान्यताएं अक्सर इन आदर्शों को चुनौती देती हैं। खासकर अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं को संपत्ति में अधिकार मिलने की राह कठिन रही है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से अहम है, बल्कि सामाजिक बदलाव की दिशा में भी मील का पत्थर है।
मामला क्या था?
यह मामला एक अनुसूचित जनजाति की महिला के बच्चों द्वारा दायर की गई अपील से जुड़ा था, जिसमें उन्होंने नाना की पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की मांग की थी। ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि महिला का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: ‘रीति-रिवाज समय में अटके नहीं रह सकते’
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि कानून की तरह रीति-रिवाज भी समय के साथ बदलने चाहिए। कोर्ट ने साफ किया कि: “किसी को परंपराओं की आड़ लेकर उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।”
संविधान का हवाला: अनुच्छेद 14, 15(1), 38 और 46
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि महिला को संपत्ति से वंचित करना अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन है। साथ ही यह निर्णय अनुच्छेद 15(1) के तहत लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 38 व 46 के सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की पुष्टि करता है।
महिला उत्तराधिकारियों को समान अधिकार
पीठ ने कहा कि महिला के कानूनी उत्तराधिकारी (बच्चे) भी संपत्ति में बराबर के हिस्सेदार हैं। यह फैसला उन सभी मामलों के लिए मार्गदर्शक बन सकता है, जिनमें परंपरागत रीति-रिवाज महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित करते रहे हैं।