हर इक़ ज़ख़्म सिया हमने
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पूरे मन से आधा इश्क़ किया हमने
घूँट घूँट भर दरिया एक पिया हमने
प्यासा कोई जब भी घर में आया है
खाली हाथों, दोनों हाथ दिया हमने
जुगनू, दीये बचपन के मेरे साथी हैं
दूजा कोई सूरज नहीं लिया हमने
साथ हमारा जितना भी है, सुंदर है
जीभर एकदूजे का साथ जिया हमने
गाँव का कुआँ बूढ़ा बरगद,भीत पुरानी
खूब सहेजा,सबका मान किया हमने
सबकुछ उसके नाम लिखा न कुछ रक्खा
तन मन वारे, सौंपा उसे हिया हमने
पलकों से फ़िर रिश्तों की तुरपाई की
पैबंद लगाया, हर इक़ ज़ख़्म सिया हमने।