शब्दरंग साहित्य में आज पढ़िए भारत भूषण जोशी जी की ग़ज़ल “ये मय कर रही है असर धीरे-धीरे”

ये मय कर रही है असर धीरे – धीरे रगों में है चढ़ता ज़हर धीरे – धीरे

वो भूली कहानी है फिर याद आई

हुए ज़ख़्म सब्ज़ा मगर धीरे-धीरे

वो अश्कों का दर्या ग़मों की वो कश्ती

गई डूब आख़िर , सहर ,धीरे – धीरे

पसरने लगी चाँदनी है चमन में

निकलता गगन में क़मर धीरे – धीरे

कली धीरे-धीरे चमन बन गई है

उफनते हैं दर्या , नहर धीरे – धीरे

चलो तोड़ दें धर्म के बन्धनों को

झुका ली है उसने नज़र धीरे – धीरे

मैं छुटता ही क्यों राह-ए-मंज़िल में पीछे

जो रहबर वो चलता अगर धीरे – धीरे

बहौत ही था ज़ालिम वो हुस्ने मुजस्सम

मिरा उसने चीरा जिगर धीरे – धीरे

समर जैसे-जैसे बढ़े जाते उसमें

है झुकता ही जाता शजर धीरे-धीरे

सलीक़ा ग़ज़ल गोई कब जल्द आता

ये आता है हमको हुनर धीरे-धीरे

शबाब आने में वक़्त लगना है लाज़िम

निकलते हैं परियों के पर धीरे – धीरे

सर –ए- बाम आएंगे वो आज भूषण

हुए हैं सभी बाख़बर धीरे-धीरे

शब्दार्थ: सब्जा-हरे; सहर-सुबह; क़मर-चाँद; रहबर-पथ प्रदर्शक; हुस्ने मुजस्सम-सौन्दर्य की मूर्ति; समर-फल; शजर-वृक्ष; सलीक़ा-अच्छा और सही तरीक़ा; ग़ज़ल गोई-ग़ज़ल कहना; शबाब-यौवन का निखार; लाज़िम-अनिवार्य; सर-ए-बाम–छत पर; बाख़बर-सूचित

भारत भूषण जोशी ‘जोशमेरे ग़ज़ल संग्रह से

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