प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ़्तारी: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा पर बहस तेज़

प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद
प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद

नई दिल्ली / चंडीगढ़, शब्दरंग समाचार:

अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद की हालिया गिरफ़्तारी ने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अकादमिक आज़ादी और राष्ट्रीय सुरक्षा के संतुलन को लेकर तीखी बहस छेड़ दी है। प्रोफ़ेसर महमूदाबाद को 18 मई को हरियाणा पुलिस ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर की गई एक सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर गिरफ़्तार किया।

क्या लिखा था प्रोफ़ेसर ने?

8 मई को किए गए पोस्ट में उन्होंने भारतीय महिला सैन्य अधिकारियों — कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह — की प्रेस ब्रीफिंग में भागीदारी की सराहना की थी। साथ ही उन्होंने भारत-पाक संघर्ष, युद्ध के संभावित परिणामों, मॉब लिंचिंग और सांप्रदायिक तनाव जैसे मुद्दों पर भी चिंताएं जताई थीं।

इस पोस्ट को हरियाणा राज्य महिला आयोग ने “राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा” और “सामाजिक अशांति को भड़काने वाला” करार देते हुए स्वतः संज्ञान लिया और 12 मई को उन्हें समन भेजा। इसके बाद पुलिस ने IPC की कई गंभीर धाराओं के तहत मामला दर्ज कर 18 मई को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।

सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम ज़मानत, लेकिन शर्तों के साथ

सुप्रीम कोर्ट ने प्रोफ़ेसर अली ख़ान को अंतरिम ज़मानत तो दी, लेकिन साथ ही सख्त शर्तें लगाईं — जैसे पासपोर्ट जमा कराना और जांच में सहयोग करना। अदालत ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखने की ज़रूरत पर भी टिप्पणी की।

शिक्षा जगत की प्रतिक्रिया

दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व डीन, प्रोफ़ेसर अनीता रामपाल ने इस गिरफ़्तारी को “पूर्व नियोजित” और “राजनीतिक दबाव का नतीजा” बताया। उन्होंने कहा कि, “पोस्ट में न तो कोई अपमानजनक बात है और न ही कोई ऐसी बात जिससे देश की सुरक्षा को ख़तरा हो।” उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि महिला आयोग और पुलिस की यह त्वरित कार्रवाई किसके इशारे पर हुई।

अशोका यूनिवर्सिटी की चुप्पी पर सवाल

इस पूरे प्रकरण में अशोका यूनिवर्सिटी की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह अब तक स्पष्ट नहीं है कि विश्वविद्यालय ने अपने प्रोफ़ेसर के साथ कैसा रवैया अपनाया — क्या समर्थन दिया या दूरी बना ली।

बहस का केंद्र: अभिव्यक्ति की सीमा कहां तक?

यह मामला अब एक बड़े सवाल की ओर इशारा करता है: क्या शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और नागरिकों को संवेदनशील मुद्दों पर बोलने की स्वतंत्रता है? या फिर आलोचनात्मक सोच और अकादमिक स्वतंत्रता पर सुरक्षा के नाम पर रोक लगाई जा रही है?

विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी कार्रवाइयाँ न सिर्फ़ विचारों की स्वतंत्रता को खतरे में डालती हैं, बल्कि विश्वविद्यालयों के भीतर आलोचनात्मक सोच और बहस की संस्कृति को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं।

Related Posts

कपास पर आयात शुल्क की छूट दिसंबर तक बढ़ी, किसान संगठनों ने जताया विरोध

नई दिल्ली। शब्दरंग समाचार: केंद्र सरकार ने कपास पर आयात शुल्क से मिलने वाली छूट को बढ़ाकर 31 दिसंबर 2025 तक कर दिया है। वित्त मंत्रालय की ओर से जारी…

सुप्रीम कोर्ट का आदेश: बिहार में ड्राफ़्ट लिस्ट से बाहर हुए 65 लाख मतदाताओं की लिस्ट जारी करे चुनाव आयोग

नई दिल्ली, 14 अगस्त 2025, शब्दरंग समाचार: बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (SIR) प्रक्रिया को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में आज लगातार तीसरे दिन सुनवाई…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *