‘सती’ रूपकंवर कांड पर 37 सालों बाद फैसला आ गया है और आरोपी बरी हो गये हैं। इससे मेरी पुरानी स्मृतियां ताजा हो गईं। मैं तब दिवराला के उस ‘वध-स्थल’ पर गया था और मेरे मन पर जो असर हुआ वह इस कविता के रूप में फूट पड़ा था। 13-14 साल की उम्र से ही मेरी आदत रही कि किसी ऐसी बड़ी जघन्य घटना घटने पर मैं वहां दौड़ पड़ता था बिना किसी साजो-सामान-सांगठनिक सहयोग के! इसके बाद अपने अनुभवों को लिखकर एक लिफाफे में डाल किसी पत्र-पत्रिका में भेजकर एक सामाजिक प्राणी के रूप में एक गहरे संतोष का अनुभव करता था। मेरे अनुभव कभी कविता-कहानी के रूप में तो कभी लेख के रूप में स्वतः प्रकट हो जाते थे और कहीं-न-कहीं छप जाते थे। मेरी आत्मिक बेचैनी से उपजे उन दौरों का सिलसिला असम के बर्बर कत्लेआम, पंजाब के आतंकवाद, बेलछी-अरवल-बाथे नरसंहार आदि से गुजरा है…। अपने एकल पंजाब दौरे के बाद मेरा एक लंबा लेख कमलेश्वर संपादित ‘गंगा’ में छपा था। मतलब सारे अनुभव प्रकाशित हैं। हां, उन दौरों में किनसे मिलता था, कहां ठहरता था- इस पर एक पूरी अलग किताब की सामग्री भी मौजूद है। स्त्रियों की सहयोग-भावना और संघर्ष-चेतना के प्रति मेरे मन में जो गहरा सम्मान है उसकी जड़ें इन दौरों में खासतौर से निहित हैं।
🔸नादान रूपकुंवर🔸
वे तुम्हारी पूजा कर रहे हैं
पर सच में
तुम नारी-जाति का कलंक हो
‘सती’ रूपकुंवर !
जो लोग लाखों की संख्या में पहुंचकर
तुम्हारी जय-जयकार कर रहे हैंं
असल में
वे पुरुष-सत्ता की प्रतिष्ठा पर
जश्न मना रहे है!
कितनी मेहनत से
सदियों में
नारियों ने अपना व्यक्तित्व
अभी थोड़ा-थोड़ा
गढ़ा है अलग स्वतंत्र
पर तुम्हारे इस कुकर्म से
तुम नहीं जानती
ये फिर कितना पीछे
ढकेल दी गई हैं
बुजदिल, नादान रूपकुंवर!
तुम्हारे हाथों आज फिर
अपमानित हुई है
नारी-जाति
क्या समझती हो
एक तुम्हीं पवित्र-पूजनीय हो ?
और जो पति की मौत के
बाद भी
रह जाती हैं
धान काटती
जांता पीसती
घर बुहारती
आफिस जाती
वे सब की सब
भ्रष्ट और तुच्छ हैं ?
क्या कहूं
नासमझ रानी रूपकुंवर!
क्या तुम भी किसी चाल का
शिकार हुई ?
या सचमुच वह
तुम्हारी अंध-आस्था थी ?
रानी बेटी रूपकुंवर!
प्यारी बहना रूपकुंवर!
तुम्हें एक बात बताऊं ?
ये चिता पर
तुम्हारी तस्वीर बेचकर
लाखों कमा रहे हैं
क्या ये चाहते तो
तो तुम्हें रोक नहीं सकते थे ?
क्या इसीलिए इन्होंने
तुम्हें छोड़ नहीं दिया ?
तुम्हारा चेहरा कितना
गर्वीला तेजस्वी था
रानी बिटिया
अभी तेरी उम्र ही क्या थी
केवल अट्ठारह !
तुम बहुत कुछ कर सकती थी
अभी बहुत कुछ!
ना, ना बिटिया मैं तुम पर
गुस्सा कैसे करूं ?
क्यों करूं ?
जरूर हम पापियों ने ही
तुम्हें ढकेला है
गलत-सलत मर्यादाएं
गढ़ के
आओ, मेरी रानी बेटी
आओ!
और राख से उठकर कह दो
’अब बहुत हो चुका तमाशा
मै समझ गई
तुम सबने अपने स्वार्थ में
मुझे आग में झोंका था’
दौड़़-दौड़कर, चीख-चीखकर
कह दो
‘तुम सब मेरे हत्यारे हो’
साथ खड़ा हूं प्यारी बहना
रूपकुंवर !
रामसुजान अमर