शब्दरंग साहित्य में आज पढिए अंतरराष्ट्रीय कवि श्लेष गौतम के गीत ,”बज जाते थे यार सुबह के चार दिसंबर में”

बज जाते थे यार सुबह के चार दिसंबर में

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याद तुम्हारी लहरों पर पतवार दिसंबर में

डूब रहे मन को जैसे त्यौहार दिसंबर में

सिहरन नहीं छुवन होती थी

आंच थी मीठी-मीठी

साथ तुम्हारा उस सर्दी में

जैसे नर्म अंगीठी

कच्ची उमर का जैसे पकता प्यार दिसंबर में

कुछ उल्टे कुछ सीधे फंदे

वाले स्वेटर बुनना

इस गोलू के लिए चौक से‌

ऊन के गोले चुनना

ज़िद्दी सर्दी जाती तुमसे हार दिसंबर में

चैन से दुनिया सोती,

अपनी आंखें जगती थीं

मोबाइल पर हम-तुम

,रातें छोटी लगती थीं

बज जाते थे यार सुबह के चार दिसंबर में

आंखों ने आंखों को पढ़ा था,

मन के तार छुए थे

जहां मिली थीं दो नदियां,

हम दोनों अलग हुए थे

कैसे लिपट के रोए थे, हम यार दिसंबर में

(डॉ श्लेष गौतम- काव्य संग्रह ‘आदमकद बौने’ से)

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