ये मय कर रही है असर धीरे – धीरे रगों में है चढ़ता ज़हर धीरे – धीरे
वो भूली कहानी है फिर याद आई
हुए ज़ख़्म सब्ज़ा मगर धीरे-धीरे
वो अश्कों का दर्या ग़मों की वो कश्ती
गई डूब आख़िर , सहर ,धीरे – धीरे
पसरने लगी चाँदनी है चमन में
निकलता गगन में क़मर धीरे – धीरे
कली धीरे-धीरे चमन बन गई है
उफनते हैं दर्या , नहर धीरे – धीरे
चलो तोड़ दें धर्म के बन्धनों को
झुका ली है उसने नज़र धीरे – धीरे
मैं छुटता ही क्यों राह-ए-मंज़िल में पीछे
जो रहबर वो चलता अगर धीरे – धीरे
बहौत ही था ज़ालिम वो हुस्ने मुजस्सम
मिरा उसने चीरा जिगर धीरे – धीरे
समर जैसे-जैसे बढ़े जाते उसमें
है झुकता ही जाता शजर धीरे-धीरे
सलीक़ा ग़ज़ल गोई कब जल्द आता
ये आता है हमको हुनर धीरे-धीरे
शबाब आने में वक़्त लगना है लाज़िम
निकलते हैं परियों के पर धीरे – धीरे
सर –ए- बाम आएंगे वो आज भूषण
हुए हैं सभी बाख़बर धीरे-धीरे
शब्दार्थ: सब्जा-हरे; सहर-सुबह; क़मर-चाँद; रहबर-पथ प्रदर्शक; हुस्ने मुजस्सम-सौन्दर्य की मूर्ति; समर-फल; शजर-वृक्ष; सलीक़ा-अच्छा और सही तरीक़ा; ग़ज़ल गोई-ग़ज़ल कहना; शबाब-यौवन का निखार; लाज़िम-अनिवार्य; सर-ए-बाम–छत पर; बाख़बर-सूचित
भारत भूषण जोशी ‘जोश’ मेरे ग़ज़ल संग्रह से