छठ महापर्व: प्रकृति-संरक्षण, सह-अस्तित्व और स्त्री-सशक्तिकरण का लोकपर्व

बिहार (Shabddrang Samachar): छठ महापर्व, विशेष रूप से बिहार, झारखंड, और पूर्वांचल में मनाया जाने वाला एक ऐसा पर्व है जो न केवल पर्यावरण-संरक्षण बल्कि लैंगिक समानता और सामाजिक-संवेदनशीलता का भी परिचायक है। छठ पर्व भारतीय जनजीवन के उस आयाम को दर्शाता है जहाँ लोकजीवन, प्रकृति और स्त्री की महत्ता गहराई से जुड़े हुए हैं। यह पर्व मुख्य रूप से सूर्य और छठी मइया की उपासना का है, जिसमें उपासक (जिनमें अधिकतर महिलाएँ होती हैं) नदी, तालाब, और सूर्यास्त-सूर्योदय के समय व्रत रखकर अर्घ्य अर्पित करते हैं।

छठ का स्त्री सशक्तिकरण और सामूहिकता का आयाम

छठ पर्व के धार्मिक अनुष्ठानों में स्त्रियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। छठ पूजा में उपासना का दायित्व विशेषकर महिलाओं का होता है, जो समाज में स्त्री को केवल ‘देवालय की मूर्ति’ या ‘आँगन की तुलसी’ तक सीमित मानने की संकीर्ण दृष्टि का खंडन करता है। इसके विपरीत, छठ के गीतों में स्त्री की शक्ति और सामाजिक मान्यता का सहज स्वरूप देखने को मिलता है। “ससुरा में मांगिले अन्न धन लक्ष्मी, नैहर सहोदर जेठ भाय हे छठी मइया…” या “बढ़े मोरा भाई भतीजवा और बढ़े ससुराल” या जैसे गीत स्त्री के दोनों परिवारों में उसके अधिकारों की प्रार्थना को प्रस्तुत करते हैं। इसमें स्त्री का स्थान केवल घर तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी आर्थिक-सामाजिक भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है।छठ की परंपरा में पवित्रता और शुचिता की विशिष्ट धारणाएँ तो हैं, परन्तु वे नारी-विरोधी नैतिकता से परे जाकर, शुद्धिकरण की प्रथा को जीवन-चेतना से जोड़ती हैं। इसमें जल-संरक्षण, मिट्टी, और बाँस की बनी सामग्रियों का उपयोग, छठ पर्व को ‘इको-फ्रेंडली’ और ‘धारणीय विकास’ के विचारों से जोड़ता है, जिसमें स्त्रियाँ अग्रणी भूमिका निभाती हैं।

सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ और ‘बायोडायवर्सिटी प्रिजर्वेशन’ का परिचायक

छठ महापर्व में सामग्रियों का चयन और उनकी उपयोगिता पर्यावरणीय दृष्टिकोण से विशेष महत्त्व रखती है। “केरवा जे फरेला घवद से ओहपे सुग्गा मेड़राय…” जैसे गीतों में खेतों की उपज, पौधों और वन्यजीवों का समावेश इस बात का प्रतीक है कि इस पर्व में जैव-विविधता की रक्षा और सस्टेनेबल डेवलपमेंट की अवधारणा गहराई से जुड़ी है। बाँस की बनी बहंगी, मिट्टी के दीप, और केले के पत्तों से बने पूजा के सामान पर्यावरण के प्रति सजगता को दर्शाते हैं, जो आधुनिक पर्यावरणीय चिंताओं के समरूप है।इस पर्व की पारंपरिक सामग्री और विधियाँ ‘सतत विकास’ की एक आदर्श प्रस्तुति हैं। उदाहरण के लिए, “कांचहि बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए…” जैसे गीतों में बाँस और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। छठ का यह अनुष्ठान आधुनिक समय में मानव की प्रकृति से निकटता को पुनर्स्थापित करता है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान और उनके संरक्षण की भावना निहित है।

सूर्य उपासना और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व का प्रतीक

छठ पूजा सूर्यदेवता और छठी मइया की उपासना के माध्यम से प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है। पौराणिक कथाओं में छठी मइया को संतान-संरक्षण और रोग नाश की देवी माना गया है। छठ पर्व की कथा स्कंदपुराण और देवी भागवत में भी मिलती है, जहाँ सूर्य और षष्ठी देवी की उपासना की परंपरा है। सूर्य, जो जीवन के सभी रूपों के लिए ऊर्जा का स्रोत हैं, को अर्घ्य देने की यह प्रथा एक अद्वितीय प्रकृति-संरक्षण का प्रतीक है।

सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श में छठ का स्थान

छठ पर्व में जातीय या वर्गीय विभाजन के बावजूद सभी सामाजिक समूहों की सामूहिक भागीदारी होती है। यह पर्व जातीय भेदभाव को परे रखते हुए सभी समुदायों को एक सूत्र में पिरोता है। मिथिला के धर्मशास्त्री रुद्रधर के अनुसार, छठ की कथा में ‘सूर्य व्रत’ की महिमा की चर्चा की गई है, जो रोग और दु:ख नाशक है। इस प्रकार छठ पर्व सामाजिक सद्भावना, समरसता, और एकता का प्रतीक है।छठ पूजा का यह महापर्व न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह पर्यावरणीय जागरूकता, लैंगिक समानता, और सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के विचारों का संवाहक भी है। इसे भारतीय संस्कृति में एक अद्वितीय उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ परंपरा, प्रकृति, और समाज एक साथ जुड़े हुए हैं।

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