
शब्दरंग समाचार: 26 जुलाई को मालदीव अपना 60वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, और इस ऐतिहासिक अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया है। यह सिर्फ एक कूटनीतिक निमंत्रण नहीं, बल्कि हिन्द महासागर में बदलते भू-राजनीतिक समीकरणों का प्रतीक है।मालदीव दुनिया का सबसे छोटा इस्लामिक गणराज्य है, जिसकी जनसंख्या महज़ साढ़े पांच लाख है, परंतु उसकी भौगोलिक स्थिति और रणनीतिक महत्व उसे भारत की विदेश नीति का एक निर्णायक बिंदु बनाते हैं। हिन्द महासागर में स्थित यह देश केवल समुद्र के किनारे बसा एक पर्यटक स्वर्ग नहीं, बल्कि वैश्विक व्यापार, ऊर्जा आपूर्ति और सुरक्षा के लिहाज से एक संवेदनशील और निर्णायक मोहरा है।भारत ने हमेशा से ‘पड़ोसी पहले’ की नीति को प्राथमिकता दी है। फिर चाहे बात 1988 में मालदीव में तख्तापलट रोकने के लिए सेना भेजने की हो या 2018 में पेयजल संकट के दौरान मदद पहुंचाने की। लेकिन हाल के वर्षों में मालदीव की राजनीति में भारत-विरोधी लहरें उठीं, विशेषकर जब राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू सत्ता में आए। उन्होंने चुनाव से पहले ‘इंडिया आउट’ अभियान को हवा दी, और सत्ता में आते ही चीन के साथ रिश्ते गहराने शुरू कर दिए।मालदीव का चीन से करीबी बढ़ाना भारत के लिए सिर्फ कूटनीतिक सिरदर्द नहीं, सुरक्षा चुनौती भी है। चीन की ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ में मालदीव की भागीदारी, वहां की परियोजनाओं में चीनी निवेश और माले के पास द्वीप को चीन को लीज़ पर देना,ये सभी संकेत भारत को चौकन्ना करने के लिए काफी हैं। चीन की नजर सिर्फ व्यापार पर नहीं, हिन्द महासागर में सैन्य मौजूदगी बढ़ाने पर भी है।लेकिन मुइज़्ज़ू की भारत नीति में एक बदलाव तब आया, जब भारत ने 4.5 अरब डॉलर की मदद से मालदीव को आर्थिक संकट से उबरने में सहायता की। यहीं भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ और रणनीतिक धैर्य की परीक्षा हुई, और भारत पास भी हुआ। मुइज़्ज़ू को शायद यह समझ आ गया कि भारत को नज़रअंदाज़ कर वह न तो स्थिरता पा सकते हैं और न ही क्षेत्रीय संतुलन।भारत का संयमित रुख़, मालदीव की घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों को समझने की परिपक्वता और चीन के प्रभाव को संतुलित करने की रणनीति, यह सब बताता है कि दिल्ली दक्षिण एशिया की कूटनीतिक बिसात पर कोई भी चाल बिना गहराई से सोचे नहीं चलती।हालांकि खतरे अभी खत्म नहीं हुए हैं। मालदीव की जनता में भारत के प्रति जो अविश्वास और असुरक्षा की भावना है, वह एक लंबे कूटनीतिक संघर्ष का संकेत है। भारत को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि वह मालदीव की प्रभुसत्ता का सम्मान करते हुए, वहां की जनता के बीच विश्वास निर्माण करे,क्योंकि सिर्फ सरकार से नहीं, जनता से जुड़ाव ही स्थायी मित्रता की बुनियाद बनती है।भारत और मालदीव के रिश्ते की कहानी समुद्र के ज्वार-भाटों जैसी है,कभी नजदीक, कभी दूर। लेकिन दोनों देशों की किस्मतें हिन्द महासागर की लहरों में एक साथ बहती हैं। यही कारण है कि एक छोटा सा द्वीपीय देश, भारत की ‘लुक वेस्ट’ और ‘सिक्योर द नेबरहुड’ नीति में बहुत बड़ा स्थान रखता है।
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