शब्दरंग साहित्य: पूनम श्री की कविताएं
1— मन जानता है
सुख इतना ही देना
जितने में-
मैं तुझे हर पल महसूस कर सकूं
मेरे हिस्से में पनपते है –
कई बार तृप्ति
सहज कई बार अकस्मात् असहज प्रवृतिनुसार असहजता पैठ बना लेती है क्यूं
शायद भौतिक मन ज़रूरतों को ढूढ़ता माया में फँसने को है आतुर
मन जानता है व्यर्थ है सबकुछ इन हाथों से जो पकड़ रहे- सबके हम हाथ है
वही हाथ- कल हम ख़ुद के
ख़ुद से कहाँ पकड़ पाएँगे
ढीली मुट्ठी भींची आँखें स्थिर धमनियाँ पूरे शरीर का गर्म से ठंडा होना
कोमल स्पर्श
मचलती तितलियाँ
पुतलियों में प्रेमी की छवि कूजते
तरु के तने
दुस्तर तिमिर में दीप की टिमटिमाती रोशनी
विस्मय विमुग्ध करता प्रेम चाशनी ये ज़मीन से क्षितिज तक बांहों का घेरा टूटे सपने को बार बार जोड़ना
संगीत मदमस्त तरंगित होना
सब तबतक
बंधा लदा फंदा है जबतक
गंतव्य के गाँव दूर है बेशक
परंतु
नेक कर्म से- प्रारब्ध प्रबल होता ज़रूर है
2- जलजला – भूडोल
सुनती थी नानी से एक कहानी
धरती -हिलती डुलती है
जब कच्छप चाल बदलता है
छोटी थी- -सोचती
धरती इतनी बड़ी —
उसने भार अपनी पीठ पर रखा है
शायद कभी थक जाता होगा कच्छप
इसलिए बदलता करवट होगा
तब ही धरती डोलती होगी
हाँ नानी ही सच कहती होगी
बड़ी हुई पढ़ा भूगोल
पृथ्वी में होने वाले तनाव
प्लेटों के आपसी टकराव
पृथ्वी के अंदर के तापमान
गैस वाष्प का बदलाव
तब जाना होता है भूडोल
(भूकंप धरती और गृहस्थी पात्रों के संग बदल जाते है )
( इक पुरुष से कच्छप की तुलनात्मक भाव को प्रकट करने की कोशिश मात्र)
कच्छप की पीठ पर प्रकृति ने उकेरी
एक अद्भुत कलाकृति
षट्कोण घेरे के अंदर गोल गहरी बिंदी जैसे सुरक्षित हो घर की चहारदीवारी
तुम भी एक सशक्त पुरुष हो
तुमनें अपने पीठ पर
कच्छप के पीठ पर बने षट्कोण सा कई रिश्तों को
अलग अलग तरीक़े से निभाते
तमाम ज़िम्मेदारियां उठा रखी हैं
कभी पुत्र -पति -पिता- मित्र बन कर
कच्छप सा सुरक्षित रखते हो
ख़ुद के कवच में
जब भी होता कोई घात है
जैसे प्रकृति ——
अनंत -पहाड़ -जंगल- नदियों से
प्राणवायु देती है
हमें तुम भी
मानवीय संवेदना से भरे
जीवंत रखते हो आंगन मेरे
कच्छप सा जीतना है तुम्हें शनै: शनै: