उपासना का सूर्य
वह जिसने बचपन में चुने थे फूल
माई को चढ़ाने को
खाई थी कुमारिकाओं की पाँत
में पूड़ी,सब्जी और खीर।
विस्मित होती थी जब लोग उसका पैर धोते थे।
रोली-चंदन से विभूषित करते थे उसे।
उस समय उसदिन ।
अरे! तुम साक्षात् देवि का रूप हो!
कहकर छू लेते थे पाँव।
आशीषों के लिए जबरिया रखते थे
उसका हाथ सिर पर ।
माता रानी कृपा बनाये रखना
बुदबुदाते हुए करते थे विदा
फिर आना माँ! कहते हुए।
आज जब वही नवमी तिथि है
बदल गई है उसकी श्रेणी
आ बैठी है कुमारिका से
सीधी स्त्री की कतार में।
छीन लिया गया है उस समय
उसदिन का क्षणिक गौरव, क्षणिक सुख
पिट रही है, नवरात्र से पूर्व
पिट रही मिट्टी की तरह
मूर्तिकार जिसे कूटता और माँड़ता है
निश्चित अवलेह के सिद्ध होने तक।
श्वेत पीठ पर उग आए नील
कहते हैं
पूजा जाना मतलब
मिट्टी हो जाना,जड़ हो जाना है
उपासना का सूर्य मूकता के
पटल पर उदित होता है।
प्रियंवदा पाण्डेय