। मूक प्रणय ।
मैं एक ठिठका हुआ उजास हूँ भोर का
जिसके पास सूरज के होने की
कोई रक्तिम रेखा नहीं
मेरे पास तपते कपोल हैं
जागते अश्रुओं के लिए
पर हथेली का कोई मृदु स्पर्श नहीं
मेरे पास वेदना के लिए एक सघन दृष्टि है
पर उसे फाँस लेने भर का परिवर्त्त फंदा नहीं
मेरे पास नींद का एक अजायब घर है
पर उनिंद आँखों में सपनों का कोई राग नहीं
यह कहते हुए
कहने के दबाव से शब्दों की त्वचा फटती है
यह कहते हुए मैं कोई सीधी रेखा नहीं
बल्कि एक वृत्त खींचता हूं चारों ओर
कसता जाता हूँ उसे हृदय पर
कि सबके विरुद्ध वह अपना आन्दोलन रोक दे
क्योंकि
मैं एक झूठ से इतना बोझिल हूँ
कि सत्य का क्लान्त चेहरा भी नहीं देख पाता
जहाँ उस दीवार पर लिखा होता है ‘ निर्वात
‘मैं हर बार पढ़ता हूँ ‘ प्रेम ‘
और टकरा जाता हूँ!